जाति उत्पत्ति का भ्रमजाल

  • राजीव पटेल 
भारत में जातियों के नामकरण से संबंधित जितनी भी किताबें लिखी गई हैं, वे अज्ञात काल यानी तथाकथित वैदिक काल की सुनी-सुनाई बातों पर आधारित हैं. ये साहित्य आज से 150-200 वर्षों पूर्व पुस्तक के रूप में लिखा गया था. जातिगत लेखक अपनी पुस्तकों की शुरुआत प्रायः इसी साहित्य के आधार पर करते हैं. जातियों का इतिहास लिखने वाले लेखक सृष्टि निर्माण काल, रामायण काल, महाभारत काल से जाति की उत्पत्ति शुरू करते हुए सीधे मुगल काल (मध्य काल) या अंग्रेजी काल (आधुनिक काल) में पहुंच जाते हैं और अपनी जाति का इतिहास लिखना शुरू कर देते हैं. लेखकगण बीच के प्राचीन ज्ञात काल को न जाने क्यों छोड़ देते हैं, जबकि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से ज्ञात काल का समय ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत के ज्ञात काल छठी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद के काल से ही भारत की सभ्यता और संस्कृति की प्रमाणिक और पुख्ता जानकारी मिलती है. उल्लेखनीय है कि ज्ञात काल के प्रमाणिक और पुख्ता अवशेष प्राप्त हुए हैं, जबकि अज्ञात काल (रामायण-महाभारत काल) के समय का किसी भी प्रकार का अवशेष या प्रमाण आज तक नहीं प्राप्त हुआ है और ना ही उसकी पुष्टि हुई है. यद्यपि कुछ लोग प्राचीन काल के कुछ अवशेषों को जबरदस्ती रामायण-महाभारत काल से जोड़ते हैं, लेकिन ये उनका अन्धविश्वास और अड़ियलपन मात्र है, और कुछ नहीं.


आप स्वयं भी ज्ञात काल को देख और समझ सकते हैं. पुरातात्विक दृष्टिकोण से ज्ञात काल (ऐतिहासिक काल) को तीन भागों में बांटकर देखा जाता है- प्रथम ज्ञात काल का समय पूर्व हड़प्पा काल (पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता लगभग 3500 ई.पू. ) से लेकर ईसा पूर्व छठी शताब्दी का ज्ञात काल है. पुरातात्विक विभाग के पास इस काल के खुदाई में मिले काफी अवशेष मौजूद हैं, जिनसे मानव सभ्यता के विकसित होने का काफी पुख्ता सबुत मिलता है. परन्तु उस काल के लोग कौन सी जाति व्यवस्था को मानते थे या कौन सी धर्म - संस्कृति को मानते थे या कौन सी लिपि और भाषा को व्यवहारिक रूप से प्रयोग में लाते थे या वे देखने में कैसे थे आदि तथ्य आज तक किसी भी पुरातत्व विज्ञानी अथवा पुरातात्विक विशेषज्ञों को सही-सही पता नहीं चल पाया है. केवल अनुमान के आधार पर विभिन्न इतिहासकार अलग-अलग प्रकार से वर्णन करते हैं.

सवाल उठता है कि फिर जाति की उत्पति का इतिहास लिखने वाले लेखकगण कैसे ज्ञात कर लिए कि उनकी जाति कि उत्पत्ति हजारों वर्ष पूर्व हुई थी ?


दूसरी ज्ञात काल की सभ्यता ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ईस्वी-सन् एक तक यानि 600 वर्षों का समय है जिसे 'बौद्धिक सभ्यता' यानि बुद्ध काल की सभ्यता भी कहते हैं. इस काल में कौन से लोग थे या उनकी धर्म -संस्कृति क्या थी या उनकी लिपि और भाषा क्या थी या उनका नाम क्या था या उन सभी के साम्राज्यों का नाम क्या था अथवा उनके साम्राज्य में लोग कैसे रहते थे आदि की समस्त जानकारी पुरातात्विक विशेषज्ञों और इतिहासकारों को है. लेकिन इन सब की जाति क्या थी, इसकी प्रामाणिक जानकारी या साक्ष्य बिलकुल उपलब्ध नहीं है. इस काल के लगभग हर सम्राट का शिलालापट्ट मौजूद है, जिस पर किसी भी प्रकार की जाति व्यवस्था की जानकारी नहीं मिलती है. सबसे पहला ज्ञात सम्राट छठी शताब्दी ईसा पूर्व में मगध का हर्यक वंश का सम्राट बिम्बिसार है. उसके बाद क्रमशः शिशुनाग वंश के सम्राट बैक्ट्रियाई शासक, यूनानी शासक जो भारत में बस गए थे, मिनांडर, शक और कुशाण वंश के राजाओं का शासन रहा है. इन सभी सम्राटों के समय बुद्ध की धर्म संस्कृति काफी उत्कर्ष पर थी और लिपि ब्राह्मी व भाषा प्राकृत/पाली थी. इन सभी का साक्ष्य व प्रमाण शिलापट्ट के रूप में हर तरफ प्रचुर मात्रा में मिलता है. लेकिन जाति व्यवस्था या वर्ण व्यवस्था की चर्चा का प्रमाण इन पुरातात्विक अवशेषों में कही नहीं मिलता है.

तीसरी ज्ञात सभ्यता का काल ईस्वी सन् एक से लेकर ईसा की 8 वीं शताब्दी तक था. इस सभ्यता को भारत का ‘स्वर्ण काल' भी बोला जाता है. इस सभ्यता के मुख्य सम्राटों में कुषाण वंश के कनिष्क, गुप्त वंश के चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, वर्धन वंश के हर्षवर्धन और पाल वंश के प्रथम शासक गोपाल और धर्मपाल का नाम आता है. इनके काल में भी लिपि ब्राह्मी व भाषा प्राकृत/पाली के साक्ष्य प्राप्त होते हैं. साथ ही धर्म-संस्कृति में 'बुद्ध' का अवशेष उपस्थित है. परन्तु इस काल में भी जाति और वर्ण की बनावट कहीं भी देखने को नहीं मिलती है. इस काल खण्ड की सबसे बडी उपलब्धि नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना (415 ई. से 450 ई.) थी, जिसमें देश-विदेश से शिक्षा ग्रहण करने के लिए लोग आते थे. उस समय की सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण वर्णन नालंदा के अवशेषों में समाहित है, जिसमें कहीं भी वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था की चर्चा नहीं मिलती है. 8वीं सदी उपरांत ही पाल वंश के शासक धर्मपाल (750 ई. से 810 ई.) के बाद से भारत में काफी बदलाव देखने को मिलता है. इसी कालखंड से भारत की सभ्यता-संस्कृति, भाषा-लिपि, धर्म-उपासना और वर्ण-जाति में एक नयापन मिलना शुरू हो जाता है.

8वीं सदी के बाद से ही भारत की सभ्यता में वर्ण और जाति व्यवस्था के क्षेत्र में पहला बदलाव प्रमाणिक तौर पर राजपूत राजाओं की उत्पति के साथ ही मिलना शुरू हो जाता है. इसके  साथ ही साथ हिन्दू व्यवस्था के तहत धार्मिक मंदिरों के निर्माण व स्थापना का काल भी यहीं से शुरू हो जाता है. नौवीं और दसवीं शताब्दी के कुछ अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उस समय राजस्थान में राज्य करने वाले कुछ राजपूत परिवारों का उद्भव सूर्यवंशी राम और चंद्रवंशी कृष्ण से हुआ था. इसका कारण यह है कि उस समय के सम्राटों के यहाँ रहने वाले ब्राह्मण (भाट) दरबारी अपने लाभ और प्रभुसत्ता को बनाए रखने हेतु अपने-अपने सम्राटों का बढ़ा-चढ़ाकर चरित्र-चित्रण किया करते थे. इन दरबारियों ने अपने ग्रन्थों में उन राजाओं की वीरता का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन किया है और राजाओं की वंशावली को काल्पनिक ग्रन्थों में वर्णित देवतानुमा पात्रों से जोड़कर दर्शाया है. इसके पूर्व उपलब्ध किसी भी अभिलेख में राजपूतों की चर्चा नहीं मिलती है. लिपि व भाषा के तौर पर देवनागरी लिपि में संस्कृत भाषा की पाण्डुलिपि भी इसी समय से मिलना शुरू हुआ. प्रथम शंकराचार्य द्वारा भारत के चारों दिशाओं में अवस्थित पीठ के माध्यम से वर्ण आधारित मनु की सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने का समय भी यही था. यानि इसी समय से ब्राह्मण और क्षत्रिय (राजपूत) का मिलना शुरु हो गया था. दूसरे शब्दों में कहें तो छोटे-छोटे सामन्ती राजाओं को राजपूत जाति में बदलने का ब्राह्मणी कुचक्र आरम्भ हो गया था.

8वीं सदी के बाद भारतीय परिवेश में वर्ण आधारित सामाजिक परिवर्तन जोर पकड़ने लगा था. ब्राह्मणी व्यवस्था के तहत क्षत्रिय राजाओं का छोटे -छोटे सामन्ती राज्यों में स्थापित होना शुरू हो गया था. या दूसरे शब्दो में कहें तो छोटे -छोटे सामन्ती राजाओं को राजपूत जाति में बदलने का ब्राह्मणी कुचक आरंभ हो गया था.

इसके परिणामस्वरुप भारत में शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता का अंत हो गया तथा देश कमजोर होने लगा और तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारी लुटेरों के आने का सिलसिला भी शुरू हो गया. इसी समय से भारत की सभ्यता में जातियों एवं उप-जातियों के प्रादुर्भाव या उत्पत्ति का प्रमाण मिलता है. यानि कुल मिलाकर देखा जाये तो 8वीं शताब्दी के बाद का काल ही भारत में संस्कृत भाषा व देवनागरी लिपि, ब्राह्मणी धर्म व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था और पूर्व की बौद्धिक व्यवस्था को कुचलने हेतु मीमांसा स्कूल और शंकराचार्य पीठ की स्थापना का काल रहा था.

11वीं और 12वीं शताब्दी आते-आते भारतीय ब्राह्मण काल और राजपूत शासकों के काल में वर्ण आधारित और जाति आधारित व्यवस्था के चरमोत्कर्ष के कारण भारतीय सामाजिकता चरमरा गयी थी. यह बात उस समय के देशी-विदेशी सभी लेखकों की बातों में लम्बी दास्तान के रूप में मिलती है कि उस समय के सभी राजाओं के सैनिक छावनी में हर जाति के लिए खाने की व्यवस्था अलग-अलग होती थी. भारतीय राजपूत शासक एक-दूसरे को नीचा दिखाने हेतु विदेशी तुर्क मुस्लिम आक्रमणकारियों से मदद लेना शुरू कर चुके थे जिसके परिणाम स्वरूप 13वीं सदी के आरम्भ से ही तुर्क-मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत में अपने पैर जमा लिए और क्रमश: भारत में उनकी सत्ता का विस्तार होता चला गया. पुनः 15 वीं शताब्दी में भारतीय राजपूतों की सत्ता व्यवस्था तुर्क मुस्लिम शासकों के स्थान पर मुगलों (मध्य एशिया के मुस्लिमों की एक प्रजाति) के अधीन हो गयी.

15वीं-16वीं सदी में भारतीय समाज ब्राह्मणी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत जातियों के मकड़जाल में फंस कर पूरी तरह से बिखर गया था. सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ इसी समय बहुत सारे समाज सुधारक आगे आये. लेकिन ब्राह्मणों ने अपने रक्षक क्षत्रिय शासकों के साथ मिलकर कठोर दमनात्मक करवाई करते हुए कबीर आदि संतो के सामाजिक सुधार आंदोलन को दबाने का काम किया. फिर भी समाज सुधारक संतगण उस ब्राह्मणी वर्ण और जाति व्यवस्था से इतना ज्यादा दुखी थे कि अपने समाज सुधार आंदोलन को उनके बलपूर्वक रोकने के बावजूद नहीं रुके और उस आंदोलन को आगे बढ़ाते गए. वर्ण व्यवस्था के तहत निम्न जातियों के समाज सुधारकों द्वारा चलाये जा रहे समाज सुधार आंदोलन का असर ख़त्म करने के उद्देश्य से ब्राह्मणों ने इस बात का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया कि ये समाज सुधारक लोग 'संत' हैं और इन्होंने ब्राह्मणी धर्म के अनुसार अपना मार्ग चुना है, इसलिए इनका समाज में मान-सम्मान बढ़ा है, आप लोग भी अगर सम्मान पाना चाहते हैं तो हिन्दू धर्मानुसार कार्य करें. उस बढ़ते हुए समाज सुधार आंदोलन को रोकने हेतु ब्राह्मणों ने उनके समाज सुधार कार्यक्रम को धर्म से जोड़कर 'भक्ति अांदोलन' या 'संत अांदोलन' नाम दे दिया. ब्राह्मणों ने लोगों के बीच इस बात को काफी प्रसारित भी किया ताकि बहुजन लोग अपनी-अपनी जातियों के अंदर ब्राह्मणों के विषमतामूलक धार्मिक व्यवस्था के उत्थान हेतु धार्मिक आंदोलन चलाते रहें. इसका परिणाम यह हुआ कि बहुजन समाज के अन्य लोग ब्राह्मणों के फैलाए गए अन्धविश्वास और असमान जाति बंधन में बंधते चले गए.

मुगलकालीन (1526 ई. से 1764 ई. तक) भारतीय व्यवस्था में सारी जातियों के वर्ण आधारित विभाजन का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-
  • ब्राह्मण - ब्राह्मण वर्ण
  • राजा/राजपूत - क्षत्रिय वर्ण
  • व्यापारी - वैश्य वर्ण
  • कृषक, पशुपालक, अन्य पेशागत समुदाय - सछूत शूद्र
  • मजदूर — अछूत शूद्र
मुस्लिम शासकों के काल (1206 ईस्वी के बाद) में जब भारतीय हिन्दू समाज पर जजिया टैक्स लगा तब ब्राह्मण वर्ण के लोग उस जजिया टैक्स के दायरे से बाहर हो लिए थे. दरअसल जजिया टैक्स का मूल उद्देश्य था कि जो कोई भी व्यक्ति इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करता है तो वह इस्लाम धर्म का दुश्मन समझा जायेगा और इस कारण वह व्यक्ति मुस्लिम सम्राटों को टैक्स देगा.

मुगलों (मुस्लिम शासकों की एक प्रजाति) के इस प्रस्ताव पर ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण के लोगों ने मुगलों से मिलकर भारतीय सभ्यता और संस्कृति के खिलाफ षडयंत्र किया. हालाँकि इन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार किया या नहीं किया, इसका पुख्ता सबुत नहीं मिलता है. लेकिन इतना तय है कि ये मुगलों के बनाए जाल ‘जजिया टैक्स' से मुक्त हो गए थे.

दूसरा प्रमुख वर्ण ‘क्षत्रिय वर्ण' था, जिसमें उस समय के भारतीय राजा या राजपूत लोग आते थे. कुछ राजा/ राजपूत मुगलों की शर्तों को को नहीं मानकर जंगलों में पलायन कर गए और आज की कुछ घुमन्तू जाति बन गये. कुछ राजपूत शासक मुगलों से युद्ध करते हुए मारे गए, जबकि बहुत सारे राजपूत शासक मुगलों की शर्तों को मानते हुए इस्लाम स्वीकार कर लिए.

वर्ण व्यवस्था की पायदान में तीसरे पायदान पर रखे गए वैश्य और अंतिम पायदान पर रखे गए सछूत शूद्र और अछूत शूद्र लोग ही उस जजिया टैक्स के भुक्त भोगी थे और अंत तक भुक्त भोगी ही रहे. लेकिन अपने स्वाभिमान को बचाते हुए उस झूठी ब्राह्मणी सभ्यता और संस्कृति को बचाए रखा. यानि की इन सछूत शूद्रों और अछूतों के अंदर गुलामी करने की गहरी प्रवृति ब्राह्मणों ने 800 ई. से 1500 ई. तक के काल में जबरदस्ती बैठा दी थी.

भारतीय शासन व्यवस्था में मुगलों की सत्ता कमजोर हो जाने के बाद (1764 ई. के बाद) अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित हो गया और ब्राह्मण वर्ग मुगलों का साथ छोड़कर अंग्रेजों के साथ हो लिया. साथ ही पुनः ब्राह्मण वर्ग ने इन सछूतों और अछूतों पर अपना आधिपत्य जमाना शुरू कर दिया. 1872 ईस्वी में ब्राह्मणों की कुटिल चाल का पहला परिणाम यह दिखाई देता है कि भारत में अंग्रेजी सरकार से मिलकर अपनी उस काल्पनिक वर्ण व्यवस्था को सत्यापित और स्थापित करवाने के लिए भारत की जनगणना करवाता है, जिसमें

  • ब्राह्मण जाति को – ब्राह्मण वर्ण
  • रियासतदार/जमींदार को - क्षत्रिय वर्ण
  • व्यापारी वर्ग को — वैश्य वर्ण
  • कृषक मजदूर कर्मी/पशु पालक/सेवक कर्मकार को — सछूत शूद्र वर्ण और
  • परित्यक्त मजदूर/सफाई कर्मकार को — अछूत शूद्र वर्ण

में गिनती करवाकर पुरानी काल्पनिक व्यवस्था को सत्यापित और स्थापित करा दिया.

ब्राह्मणी व्यवस्था का परचम लहराते हुए ब्राह्मणों ने अंग्रेजों से मिलकर 1931 ई. की जनगणना में प्रत्येक प्रदश में भाषा और क्षेत्र के आधार पर भारत के बहुजन समाज को लगभग 6500 जातियों में विभक्त करते हुए इन लोगों को एक नयी खंडित जाति का प्रमाण पत्र भी दे दिया.

भारतीय समाज में 1900 ई. के बाद कुछ ऐसे विद्वान लेखक भी हुए, जिन्होंने अपनी विद्वता और परिकल्पना का इस्तेमाल करते हुए अपनी-अपनी जाति की उत्पति से सम्बंधित अनेक किताबें लिखीं. अब आपको ध्यान देना है कि लेखकगण अपनी पुस्तकों में उस काल्पनिक युग को वैदिक युग, राम युग, महाभारत युग, कौरव युग, पांडव युग, कर्णयुग, रावण युग, इंद्र युग, परशुराम युग, बलराम युग, कश्यप युग, वशिष्ठ युग, विश्वामित्र युग, अश्वस्थामा युग या अन्य कई प्रकार के नामों से सुशोभित युगों की चर्चा करते हैं. इन सब युगों का समय, भाषा, लिपि, धर्म का ज्ञान कहाँ और कब था, ये कोई नहीं बताता.

इसके अतिरिक्त इन सब के बाद और हड़प्पा-मुअनजोदड़ो सभ्यता तक के बीच के समय में कौन सी सभ्यता- संस्कृति व लोग और जातियां थी, इस पर भी सब खामोश रह जाते हैं. अगर इतनी ही अधिक जानकारी आपके पास है या थी तो हड़प्पा-मुअनजोदड़ो के समय में कौन सी भाषा, लिपि, सभ्यता, संस्कृति, धर्म और जातियां थी, ये भी बताने से बगले क्यों झांकने लगते हैं ये लोग ?

हड़प्पा-मुअनजोदड़ो की व्यवस्था के बाद के ज्ञात काल यानि छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व से लेकर ईस्वी- सन् के आरम्भ तक क्या किसी प्रकार के वर्ण या जाति व्यवस्था का कोई पुरातात्विक साक्ष्य मिलता है?

उल्लेखनीय है कि छठी शताब्दी ईसा पूर्व और ईस्वी सन् के प्रारंभ के बीच का समय यानि 600 वर्षों के ज्ञात काल का समय ‘बुद्ध‘ का समय रहा है जिसमें भाषा के प्रमाण के रूप में प्राकृत/पाली भाषा के शिलालेख हमारे सामने मौजूद हैं. इसमें बुद्ध के अनुयायी के रूप में सम्राट बिम्बिसार और सम्राट अशोक काफी लोकप्रिय हुए हैं. इस ज्ञात काल के सभी सम्राटों की भाषा और लिपि, धर्म-संस्कृति का स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध है, जिसमें कहीं भी ब्राह्मण वर्ण और जाति की चर्चा नहीं है, आखिर क्यों ?

जब जातियों का कहीं कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिलता फिर जातियों की उत्पत्ति की बातें पूर्व काल में मिले अस्पष्ट सामानांतर शब्दों के आधार पर वर्तमान परिवेश के हमारे विद्वान लेखकों ने कैसे अपने किताब में लिख दिए हैं? अगर लिख भी दिए हैं, तो फिर उन नामों और शब्दों की चर्चा आगे के काल में क्यों नहीं मिलती है? इसकी भी जानकारी उन्हें देनी चाहिए. इसके अतिरिक्त लेखकगण इन काल्पनिक युगों (रामायण महाभारत काल) के नामों की चर्चा के बाद ज्ञात काल को छोड़ते हुए सीधे 800 ईस्वी के बाद या 1600 ईस्वी के बाद के काल में पहुंचकर किसी जगह उपयुक्त शब्दों से तारतम्य मिलाते हुए जातियों का निर्माण कर देते हैं. क्या जातियों का निर्माण महज कुछ शब्दों और वाक्यों के जोड़-तोड़ कर लिख देने से होता है या पीढ़ी दर पीढ़ी होती है? जितने भी हमारे बीच विद्वान लेखक महोदय हुए हैं, उन्होंने जिस किसी भी जाति की किताबों का लेखन या रचना किये हैं, उनमें वे लोग सामान्य तौर पर सर्वप्रथम हड़प्पा-मोहनजोदड़ो काल (आज से लगभग चार हजार वर्ष पूर्व) से भी पूर्व काल यानि किसी अज्ञात काल की चर्चा करते हुए सीधे मुगल काल (1526 ई. के बाद) पर आ जाते हैं या अज्ञात काल की चर्चा करते हुए मौर्य काल (320 ईसा पूर्व) और अंग्रेजी (1764 ई. के बाद) काल पर आ जाते हैं लेकिन बीच के समस्त प्रमाणिक समय अर्थात दो हजार ईसा पूर्व से  लेकर 1700 ईस्वी के बीच के अर्थात 3700 वर्षों के काल को भूल जाते हैं या अंर्तध्यान होकर मौन साध जाते हैं.

वस्तुतः भारत में जातियों की उपस्थिति का प्रमाणिक अभिलेख 8वीं शताब्दी के उत्तरार्ध यानि पाल वंश के बाद के समय से मिलना शुरू हो जाता है, जो आगे पीढ़ी दर पीढ़ी मिलते आया है. इसमें प्रभावशाली, संपन्न और बुद्धिजीवी जातियों का प्रमाण मिलता है. इस काल (800 से 1200 ई. तक) को राजपूत और ब्राह्मण काल भी कहते हैं. लेकिन जो जातियां मेहनतकश हुआ करती थीं, उनका प्रमाण और प्रसार अंधे कूपों में दब जाया करता था. इस कारण गरीब जातियों के अंदर जब कुछ लोग साधन सम्पन्न बन गए, तब प्रतिष्ठा पाने के लिए अपनी उत्पत्ति को काल्पनिक काल से जोड़ कर देखना शुरू कर दिया, जिसका आधार बिल्कुल भ्रामक और तथ्यहीन है.

मध्यकाल (1200 ई. से लेकर 1700 ई. के बीच) में बहुत से विदेशी यात्री भारत की यात्रा पर आये और अपनी यात्रा के दौरान यहां की सभ्यता और संस्कृति को नजदीक से देखा और उन्हें लिपि बद्ध करने का काम किया. उनके यात्रावृतांत में ज्यादातर भारत की मुख्य जातियों राजपूत (सम्राट), ब्राह्मण (दरवारी), वैश्य (व्यापारी) की चर्चा ही मिलती है, जबकि दूसरी जातियों की चर्चा बहुत ही कम मिलती हैं.

भारत में खेतिहर समाज काफी गरीब हुआ करता था, जिसका मुख्य कारण यह था कि यह समाज मुगल सम्राट से ज्यादा उसके दरबारी, रियासतदार और जमींदार से ही परेशान और त्रस्त रहता था. राजधानी से ज्यादा दूर होने की वजह से उनके भू-क्षेत्र पर दरबारी, रियासतदार, जमींदार और तहसीलदारों का प्रभाव ज्यादा रहता था और ये लोग किसानों से लगान के अलावा सामन्तवादी प्रवृति का उपयोग करते हुए कृषक के घरों से या खेतों में पड़ी फसल को भी लूट लेते थे और उन्हें मानसिक-शारीरिक रूप से काफी प्रताड़ना भी देते थे, जिसकी वजह से कृषक परिवार  मानसिक रूप से परेशान रहा करता था. इस कारण किसानों की गृहस्थ जिंदगी काफी दयनीय रहती थी. इनकी गृहस्थ जिंदगी में प्रथमत: तो इसके परिणामस्वरुप वंश वृद्धि भी सही रूप से नहीं हो पाती थी और अगर वंश वृद्धि होती भी थी तो इनके बच्चे कुपोषण और भुखमरी का शिकार होकर काल के गाल में समा जाते थे. ये लोग रियासतदार और जमींदारों के शोषण से ऊब कर अक्सर एक सीमा से दूसरी सीमा में पलायन करते रहते थे, इस कारण इनके घर भी स्थायी और पक्के ईटों के नहीं होते थे. इनके घर मिट्टी और घास-फूस के बने होते थे. अधिकतर खेतिहर परिवारों के दिलो दिमाग में यह बात बैठ गयी थी कि मेहनत और मजदूरी हम लोग करते हैं और ये रियासतदार और जमींदार आता है और सब कुछ लूट के ले जाता है, जिसकी वजह से बहुत सारे खेतिहर परिवार जमींदारों के आतंक से जंगलों में पलायन कर गए और बाद में जंगलों के अंदर ही जीवकोपार्जन का साधन खोज लिया और वहीं जीवन बिताने लगे. पश्चिमी भारत के कुछ खेतिहर परिवार के लोग जमीनदारों और रियासतदारों के आतंक से बचने के लिए उनके सिपाहियों के यहां घोड़ों की देखभाल या घरेलू कार्य या कृषिकार्य(बागवानी) करने की नौकरी का काम भी करने लगे थे.

देश में अंग्रेजी सरकार के आने के बाद से कृषक परिवारों की जिंदगी में कुछ परिवर्तन का दौर शुरू हुआ. लेकिन यहां भी पूर्व के सभी दरबारी और रियासतदार बाधक बनकर खड़े हो गए, क्योंकि अब पूर्व के सभी दरबारी, जमींदार और रियासतदार लोग मुगलों को छोड़ कर अंग्रेजी सरकार की चमचागिरी में आ गए थे. दूसरी तरफ अंग्रेजों को भी किसानों से लगान वसूल करने हेतु एक माध्यम चाहिए था, अतः मुगलों के अधीन कार्यरत पुराने सभी जमींदारों और रियासतदारों को पुनः अपने अधीन नियुक्त कर लिया. लेकिन अंग्रेज मुगलों से ज्यादा समझदार और व्यवस्थित रूप से शासन चलाने वाले लोग थे इसलिए पहले के मुगल शासन में लगान वसूल करने की प्रक्रिया में परिवर्तन करते हुए या जमींदार यदि अपने कार्यों के प्रति ईमानदार नहीं होता था या उनकी लापरवाही दिखती या किसी भी प्रकार की लगान वसूली प्रक्रिया में कमी दिखती तो उनकी जमींदारी को बेचा या नीलाम किया जा सकता था और उस नीलामी प्रक्रिया में उस इलाके का कोई भी व्यक्ति भाग ले सकता था. इसी वजह से बाद के समय में कुछ खेतिहर कृषक परिवार भी इस नयी जमींदारी प्रक्रिया में भाग लेकर उस जमींदारी हिस्सा का कुछ भाग खरीद कर जमींदार बन जाता था.

दूसरी ओर अंग्रेजी सरकार के ऊपर अन्य देशों का भी दबाब हमेशा बना रहता था कि भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक कुरीतियों को कम से कम किया जाये. इन दो वजहों से अंग्रेजी शासन काल में भारत में कुछ अमूल चूल परिवर्तन की शुरुआत देखने को मिलती है.

पहला तो या कि कुछ किसान परिवार के लोग 1800 ईस्वी से 1900 ईस्वी के बीच में मेहनत और बचत करते हुए अंग्रेजी सरकार के अंदर एक आना से लेकर सोलह आना (उस जमाने की एक प्रकार की हिस्सेदारी मापने का तरीका) तक की जमींदारी खरीदी. इसके प्रमाण के रूप में देश के कुछ भागों में पुराने प्रतिष्ठित जमींदार परिवारों को देख सकते हैं.

दूसरी बात यह कि अंग्रेजी सरकार को समाचार पत्र के माध्यम से और सामाजिक संगठनों के दबाव में आकर नहीं चाहते हुए भी अपने अधीनस्थ दरबारियों और रियासतदारों के ऊपर कुछ बंदिशें लगाना पड़ा था, जिसकी वजह से इन दरबारी और रियासतदारों ने अपने स्वामी अंग्रेजों के विरूद्ध आवाज भी उठाई थी.

इन सब तथ्यों की चर्चा करना मैंने इसलिए आवश्यक समझा क्योंकि मुगल काल के पूर्व समय तक कृषि कर्मी के अंदर आज के जैसा सामाजिक विभाजन मौजूद नहीं था. परन्तु मुगल काल और उसके बाद में कृषक समाज पर सामंतवादी जमींदार और रियासतदारों के घोर अत्याचार की वजह से कृषकों को एक जगह से दूसरी जगह पर पलायन करना पड़ा, जिसका असर हर कृषक समूह पर पड़ा और अब कृषक जातीय समूह को नए जगहों पर उसके पुराने जगह में प्रचलित शब्दों से और जाति सूचक नामों के द्वारा सम्बोधित होना पड़ा और पीछे छोड़े हुए पुराने जातीय समूहों से कटते जाना इनकी नियति बन गयी थी. जिसके परिणामस्वरुप कृषक समाज प्रत्येक नए जगह पर नए-नए नामों से सम्बोधित होता रहा और एक समय ऐसा भी आया जब इस कृषक समाज की गिनती सैकड़ो उपजातियों के रूप में होने लगी.

दूसरी ओर अंग्रेजों के काल में सामाजिक संगठनों का समाज सुधार आंदोलन बढ़ता जा रहा था. इस वजह से अब कुछ कृषक समूह थोड़ी राहत और स्थायित्व महसूस करने लगे थे. परिणाम स्वरुप वे लोग अंग्रेजी सरकार से एक आने से लेकर बारह आने तक की जमींदारी भी खरीद करने लगे थे. अब ये नये कृषक जमींदार परिवार पूर्व के अन्य जमींदारों की बराबरी में आने लगे, जिसकी वजह से इनके अंदर अकड़ और पकड़ ब्राह्मणी व्यवस्था की ओर ज्यादा दिखने लगी और अपने आप को काल्पनिक वैदिक साहित्य के द्वारा वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय वर्ण या अन्य नामों से बराबरी करते हुए कृषक समाज के अंदर रहते हुए भी अपने लिए अलग से सम्बोधन और पहचान बनाकर रहने लगे, और बाद में अपनी जाति में भी नई उपजाति के रूप में उभरे. 

ब्राह्मणों की फूट डालो-राज करो की नीति ने इसे बहुत बढ़ावा दिया. इस नीति के तहत ब्राह्मणों और अंग्रेजों ने मिलीभगत से 1872 ई. में ‘वर्ण' आधारित जनगणना करते हुए कृषक वर्ग की सभी उपजातियों को ‘सछूत शूद्र' में समाहित कर दिया. आगे ब्राह्मणों और अंग्रेजों ने पुनः 1931 ई. में जाति आधारित जनगणना करवा कर विभाजन को और पुख्ता करने का काम भी किया. 

संक्षेप में कहा जाए तो भारत के अज्ञात काल से लेकर ज्ञात काल के समय का अध्ययन करने पर साफ दिखता है कि जाति उत्पति से सम्बंधित अज्ञात काल के समय का किसी भी प्रकार का पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिलता है जबकि ज्ञात काल का अवशेष और साक्ष्य बहुत सारा मिलता है लेकिन उस काल में ब्राह्मणी व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था और जाति उत्पति से सम्बंधित प्रमाण निश्चित तौर पर लगभग 800 ई. के समय तक नहीं मिलता है, सिर्फ कहीं-कहीं शब्दों के प्रयोग मात्र से ही कुछ लोग उसे जाति सूचक मानकर देखते हैं. इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय समाज में ब्राह्मणी व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था की संरचना का प्रामाणिक साक्ष्य 800 ई. बाद से ही दिखाई देता है.


राजीव पटेल चिन्तक एवं लेखक हैं.

1 comment:

Dr Kailash Saran said...

पटेल जी आपने काफी अच्छी विवेचना की है | पर कुछ एक ऐसे तथ्य है की जिनपे दुबारा से देखने की जरुरत है जैसे आपने लिखा राजपूत जाति के प्रादुर्भाव के समय यानी काल के बारे में ये तथ्य वो ही है जो हमे दिखाए गए है | जबकि जब इन तथ्यों की वैज्ञानिक जांच की जाती है इनकी आयु ज्ञात करने के लिए तो ये किये गए दावे पे खरे नहीं उतरते मेरा यह मानना है की राजपूत यानी सिंह उपनाम का चलन अकबर के समय से हुआ वो भी उसे प्रदान की जाती थी उपाधि जो अकबर या शासक मुस्लिम वर्ग के परिवार के सदस्यों को अपने घर की बेटी दे देता था | यानि बेटी दो सिंह की उपाधि लो योजना और इसका प्रथम फायदा उठाया आमेर के राव मान कुमार ने और कहलाये मानसिंह अन्यथा आप देखिये की प्रताप सिसोदिया यानि राणा प्रताप सिंह नहीं कहलाये जबकि उनके पुत्र अमर सिंह कहलाये और उनके दो भाई भी सिंह कहलाये क्यूंकि उन्होंने अपने परिवार से एक कन्या की शादी जहाँगीर से की थी |
दूसरा ब्राहमणवाद कोई नया नहीं था दुनिया में इसक जन्म इंडोनेशिया में हुआ था इसके अकाट्य प्रमाण इंडोनेशिया से लेकर थाईलैंड जिसे उस समय श्याम, कंबोडिया जिसे चंपा, मयान्मार यानी बर्मा और लगते हुए चीन के शंजिंग प्रान्त में थोक के भाव में मिलते है | ये प्रमाण यह भी इंगित करते है की किस तरह से से ये ब्राहमणवाद भारत की भूमि पे आया था | ये भी दिखाते है की किस तरह से वर्ण व्यवस्था का जन्म थाईलैंड में हुआ था अयोध्या में और वंहा से ये भारत में आया था और इसका काल लगभग नवीं से दसवीं शताब्दी के आसपास है |